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"तुम फूल उठोगी लतिका सी कपित कर सुख सौरभत रग, मे सुरभि खोजता भटकूँगा वन-वन बन क्स्तूरी कुरग। यह जलन नही सह सक्ता मैं चाहिए मुझे मेरा ममत्व, इस पचभूत की रचना मे में रमण करूं बन एक तत्व । यह द्वैत, अरे यह द्विविधा तो है प्रेम बांटने का प्रकार। भिक्षुक में ? ना, यह कभी नही में लौटा लूंगा निज विचार । तुम दानशीलता से अपनी वन सजल जलद वितरोन विदु, इस सुख नभ मे में विचरूंगा बन सकल कलाधर शरद इदु । भूले से कभी निहारोगी कर आकपण मय हास एक, मायाविनि । मै न उसे लूंगा वरदान समझ कर, जानु टेक ! ईर्ष्या ॥५६३॥