सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

झूले पर उसे झुलाऊँगी दुलरा कर रंगी बदन चूम । मेरी छाती से लिपटा इस घाटी मे लेगा सहज घूम । वह आवेगा मृदु मलयज सा लहराता अपने मसृण वाल, उसके अधरा से फैलेगी नव मधुमय स्मिति लतिका प्रवाल। अपनी मीठी रसना से वह बोलेगा ऐसे मधुर बोल, मेरी पीडा पर छिडकेगा जो कुसुम धूलि मकरद घोल । मेरी आखो का सब पानी तव बन जायेगा अमत स्निग्ध, उन निर्विकार नयना मे जब देलूँगी अपना चित्र मुग्ध ।" प्रसाद वाङ्गमय । ५६२॥