जीवन निशीथ ये अधकार । तू नील तुहिन जल निधि वन पर फैला है कितना वार पार क्तिनी चेतनता की किरन है डूब रही ये निर्विवार कितना मादक तम, निसिल भुवन भर रहा भूमिमा म अभग तू मूर्तिमान हो छिप जाता प्रतिपल के परिवत्तन अनग ममता की क्षीण अरुण रेग्वा सिलती है तुझमे ज्योति कला जैसे सुहागिनी को मिल अलका मे कुकुम चूण भला रे चिर निवास विथाम प्राण के मोह जलद छाया उदार माया रानी के केश भार। जीवन निशीथ के अववार । तू घूम रहा अभिलापा के नव ज्वलन धूम सा दुर्निवार जिसमे अपूण लालसा, क्सक, चिनगारी सी उठती पुकार यौवन मधुवन की कालिंदी बह रही चूम कर सब दिगन्त मन शिशु की क्रीडा नौवायें बम दौड लगाती है अनन्त कुहुकिनि अपलक दृग के अजन । हँसती तुझमे सुन्दर छलना धूमिल रेखाओ से सजीव चचल चिनो को नव-कलना इस चिर प्रवास श्यामल पथ मे छायो पिक प्राणो की पुकार बन नील प्रतिध्वनि नभ अपार । इडा ॥५६९॥
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५९८
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