पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५९९

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यह उजडा सूना नगर प्रात जिसमे सुख दुख की परिभाषा विश्वस्त शिल्प सी हो नितात निज विक्त वक्र रेखाओ से, प्राणी का भाग्य बनी अशात कितनी सुसमय स्मृतियाँ, अपूण रचि बन कर मंडराती विकीर्ण इन ढेरो म दुखभरी कुरुचि दब रही अभी बन पत्र जीर्ण आती दुलार को हिचको सी सूने कानो म कसा भरी इस सूखे तरु पर मनोवृति आकाश-वेलि मी रही हरी जीवन समाधि के खडहर पर जो जल उठते दीपक अशात फिर वुझ जाते वे स्वय शात ।' या मोच रहे मनु पडे श्रात यदा पा गुग्म साधन नियाम जब छोड चले गये प्रशात पथ पय म भटर अटक्ते वे आये इस कजड नगर प्रात चहती सरस्वती वेग भरी निस्तब्य हो रहो निशा श्याम नक्षत्र निरपते निनिमेष वसुधा वो वह गति विक्ल वाम वृत्रनो का यह जनाकीर्ण उपपूल आज क्तिना मूना वा इद्र की विजय क्या की स्मृति देती थी दुम दूना यह पावन मारमा प्रदेश दुम्यप्न देयता पडा परत फैगया चारो योर ध्यात ) प्रमार याममय ॥५७०॥