पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६०९

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"जीवन निशीथ का अधकार भग रहा क्षितिज के अचल मे मुस आवृत कर तुमको निहार तुम इडे उपा सी आज यहा आयी हो वन कितनी उदार कलरव कर जाग पडे मेरे ये मनोभाव सोये विहग हंसती प्रसन्नता चाव भरी बन कर किरनो की सी तरग अवलम्ब छोड कर औरो का जव बुद्धिवाद को अपनाया मैं बढा सहज, तो स्वय बुद्धि को मानो आज यहाँ पाया मेरे विकल्प सकप बनें, जीवन हो कर्मों की पुकार सुख साधन का हो खुला द्वार ।" .