पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६०८

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ſ "हाँ तुम ही हो अपने सहाय जो बुद्धि कहे उसको न मान कर फिर किसकी नर शरण जाय जितने विचार सस्कार रहे उनका न दूसरा है उपाय यह प्रकृति परम रमणीय अखिल ऐश्वय्य भरी शोधक विहीन तुम उसका पटल खोलने म परिकर क्स कर बन कमलीन सबका नियमन शासन करते बस बढा चलो अपनी क्षमता तुम ही इमवे निर्णायक हो, हो रही विषमता या ममता तुम जडता को चैत य बगे विज्ञान सहज साधन उपाय यश अखिल लोक में रहे छाय।" हंस पडा गगन वह शून्य लोक जिसके भीतर बस कर उजडे कितने ही जीवन मरण शोक कितने हृदयो के मधुर मिलन क्रदन करते बन विरह कोक ले लिया भार अपने सिर पर मनु ने यह अपना विषम आज हँस पडी उषा प्राची नभ मे देखे नर अपना राज काज चल पडी देखने वह कौतुक चचल मलयाचल की बाला लख लाली प्रकृति कपोलो मे गिरता तारा दल मतवाला उनिद्र कमल कानन म होती थी मधुपो की नोक झोक वसुधा विस्मृत थी सक्ल शोक ।