मान स्पन्दसत्ता बुद्धि के घरौदे मे बद कर अनेक स्पो म बताई जाती है, यह केवल बौद्धिक कौशल है। अपने एक लिंगात्मक प्रतीक में वह अलिंग-सतान जाने किस अतीत से विश्व-पीठिका पर आसीन और आदत है । भूगोल के सभी भागो म चाहे वे अफ्रीका के गहन वा मे हो, हिमालय को दुगम घाटियो मे हो अथवा योरप अमरीका मे हा अरब ईरान के मरु जागल प्रदेशो म हो अथवा वर्मा मलाया के सघन वनो म, यह प्रतीक अविज्ञात काल से चिन्तन और ध्यानसमपण का केन्द्र बना है। क्या मानव ने ज्ञानोन्मेप को उपा मे ही सृष्टि के प्रेरक अवस्थापक और समाहारक किंवा उसके उन्मीलक और निमोलक रहस्य की तत्वसत्ता का आभास अपने चित्त के अभिजात मुकुर मे महज ही पा लिया था ? जो, युगो के ओघ द्रदेशा म विस्तार विकेन्द्रण की झझा झेल कर भी निभृत कोणो मे अपनी परम्परा-सना बनाए हे ही, उस 'निराभास' का आभास उस सुप्त स्थानीय अणु मे अन्तर्जातत्वेन अनुम्यूत रहा, मानव रूप जिसका बृहण मात्र है। पूजने और पूजवाने के लिये सृष्टि प्रक्रिया के इस मूल रहम्य का चाहे बहुविध विडम्बन क्या न किया जाय किन्तु सात्त्विक अन्वेषण की निष्ठा उस सदैव अपनी तथता म पाती रही, उस तथता को कितने समीप से, यह प्रश्न दूसरा है। अचेतन के रहस्या के स्वामी भौतिक विज्ञान का चेतना के रहस्य तक अभी पहुँचना है। बहुवा उसे 'शिश्नदेव और अनार्यों के पूज्य के रूप म देखा जाता है। मानवी सामूहिक चेतना लाखा लाखा वर्षों पूर्व अपना प्रस्थान विन्दु छोड चली होगी और किती ओघ और स्थाना तरण, युग और महायुग बीतने पर आय्य अनाय्य, दश विदेश और जाति प्रजाति के विभाजना म समष्टि चेतना के कृतिम खण्ड बने होगे, कीन कह सस्ता है ? फिर उन सभी खण्डा ने ज्ञानान्मेप प्रथम उपा की लालिमा को नाना अनुम्प रूप प्रकारो मे इसे सचित रया हो ता आश्चय क्या ? सुतराम् वह एक देशीय या एक जातीय परम्परा तो हो ही नहीं साती। प्रसाद वाङ्गमय का सकल्प विदु प्रेम पथिक है जो प्रथमत सवत् १९६३ म प्रस्तुत हुआ अथात् कवि के १७ वप के वयम् मे। इसका प्रकाशन इन्दु मे सवत् १९६६ म हुआ। इसी वप से इन्दु का प्रकाशा प्रारम्भ हुआ था। पेम पथिक के प्रथम सस्करण की भूमिका (१९७०) म आठ वर्षों पूर्व प्रजभाषा रुप म इसके लिम्वे जाने का उल्लस है। प्रत्यभिज्ञा दृष्टि से शोध प्रस म केवल कामायनी के पने उलटना ही पयाप्त नही कामायनी वे मनु की चेतना 'रही विस्मति सिंधु म स्मृति नार विकल अकूल' को जब कूल किनारा मिलता है तब पहचानते है प्रमाद वागमय ॥ ७० ॥
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