"वही छवि ! हाँ वही वैसे । किन्तु क्या यह भूल ?" और प्रेम-पथिक का 'किशोर' तापसी चमेली को पहचान लेने पर कहता है "कौन चमेली? अरे दयानिधि यह क्या कैमी लीला है ?" भारतीय साहित्य म यह प्रत्यभिज्ञा का तत्व जब जब अपने आन्तर स्पश की सात्विक निष्ठा से उदित हुआ, विश्व को दृष्टि चमत्कृत हुई है, विस्मित हुई है। तत्व सयोग म विस्मय का आना तो कोई कुतूहल की बात नहीं, यह तो एक भूमिका है। ( विस्मयो योग भूमिका) विश्व साहित्य का उज्ज्वल रिक्थ शाकुन्तल क्या प्रत्यभिज्ञा की रूपकीय अभिव्यक्ति नही ? प्रमाद वाग्मय म प्रत्यभिज्ञा की स्वतन्त्रसरणि हे । साय विन्दु तक पहुंचने का एक मौलिक माग है, सुतगम् प्रस्थान विशेष का आरापित-आलोक व्यवहाय नहीं यद्यपि उनसे विवाद न तो तत्वत है न ता भावत अपितु वह अत स्फूर्ति है। इस दृष्टि का परिचय उस महत्वपूर्ण मवन् १९६६ मे लिखित भवित नामक निबन्ध मे या प्राप्त है-'मनुष्य जब आध्यात्मिक उनति करने लगता है, तब उसके चित म नाना प्रभार के भाव उत्पन्न हाते है । और उन्ही भावो के पर्यालोचन म उसके हृदय म एक अपूर्व शक्ति उत्पन्न होती है, उसे लोग चिन्ता कहत हैं। वह चितित मनुष्य ससार मे क्सिी 'अधटन घटना पटीयसी शक्ति की लीला देग्वते देखते मुग्ध होकर उस शक्तिमान की खोज करता है। जब वह भ्रमता है, तब उसे उन पथप्रदशको की मधुर सान्त्वनामयी वाणी क्ण गाचर होती है-"श्रद्धाभक्तिज्ञानयोगादवैहि । अस्तु । यदि उस सव शक्तिमान को कोई ऊँची वस्तु मान लिया जाय, तो भवित उसे पाने का दूसरा सोपान है, नही तो ऐसा हो मान लिया जाय कि किसी निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचने की, एक सहारे की श्रखला है, जिममे कि ये चार कडिया हैं। इनम ऐसा घना सम्बन्ध है कि वह किमी प्रकार मे नही छूट सकता। मानव सृष्टि धारा प्रवाह की तरह उस महासागर की ओर जा रही है । उस धारा प्रवाह म श्रद्धा जल है, भक्ति वेग है तथा उसका गमन ही ज्ञान है, और उसका याग हो जाना ही महासम्मेलत है। श्रद्धा 'भवित' मे केवल नामान्तर है, श्रद्धा का पूर्ण स्वरूप भक्ति है, भवित विना पहचाने होती नही, और विना मिल जाना भी नही जाता, इसी से कहते हैं कि इनका परस्पर धना सम्बन्ध है । इसे नामा तर अथवा भावभेद भी मान सकत है। श्रद्धा के परिपाक म भक्ति से उसे मनुष्य कहता है-'सत्य' जब उसके मगलमय स्वरूप का देखता है, तब उसके मुख मे अनायास ही- प्राक्कथन ।।७१॥...
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