सध्या अम्ण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती, मुरझा कर क्व गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती। क्षितिज भाल का कुकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से, कोक्लि की काकली वृथा हो अब कलियो पर मंडराती । कामायनी कुसुम वसुधा पर पडी, न वह मकरद रहा, एक चित्र बस रेखाओ का, अब उसमे है रग कहा वह प्रभात का हीनकला शशि, किरन कहा चादनी रही, वह सध्या थी, रवि शशि तारा ये सब कोई नही जहाँ । जहाँ तामरस इदीवर या सित शतदल है मुरझाये, अपने नालो पर, वह सरसी श्रद्धा थी, न मधुप आये, वह जलधर जिसमे चपला या श्यामलता का नाम नही, शिशिर काल' की क्षीण स्रोत वह जो हिमतल मे जम जाये । एक मौन वेदना विजन की, झिल्ली की झनकार नही, जगती की अस्पष्ट उपेक्षा, एक कसक साकार रही, हरित कुज की छाया भर थी वसुधा आलिंगन करती, वह छोटी सी विरह नदी थी जिसका है अब पार नही । नील गगन म उडतो-उडती विहग-बालिका सी किरने, स्वप्न लोक को चली थकी सी नीद सेज पर जा गिरने विन्तु विरहिणी के जीवन मे एक घडी विश्राम नही, बिजली सी स्मृति चमक उठी तर, लगे जभी तम घन घिरने । १ आदिसस्यरण में का है किन्तु पाण्डुलिपि में फार जो युक्त है। स्वप्न ॥५८
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