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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६१३

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सध्या नील सरोरुह से जो श्याम पराग बिखरते थे, शेल घाटियो के अचल को वे धीरे से भरते थे, तृण-गुरमो से रोमाचित नग सुनते उस दुख की गाथा, श्रद्धा की सूनी सासो से मिल कर जो स्वर भरते थे. "जीवन मे सुख अधिक या कि दुख, मदापिनि कुछ बोलोगी? नभ मे नखत अधिक, सागर मे या बुबुद् हैं गिन दोगी? प्रतिविम्वित हैं तारा तुम मे, सिंधु मिलन को जाती हो, या दोनो प्रतिविम्ब एव के इस रहस्य को खोलोगी। इस अवकाश पटी पर जितने चित्र विगडते बनते हैं, उनम क्तिने रग भरे जो सुरधनु पट से छनते हैं, किन्तु मक्ल अणु पल म घुलवर व्यापर नील शून्यता सा, जगती का आवरण वेदना या धूमिल पट वुनते हैं। दग्ध वाम से थाह न निकले सजल कुहू म आज यहां । कितना स्नेह जला पर जरता ऐसा है लघु दीप कहाँ ? बुप न जाय वह गायनीरन सी दीप-शिखा इस कुटिया की, शलभ समीप नही तो अच्छा, सुखी अकेले जले यहाँ । प्रमाद वाङ्गमय ।।५८६ ॥