सुन्दर मुस, आंखो को आशा, किन्तु हुए ये किसके हैं, एक वाकपन प्रतिपद शशि का, भरे भाव कुछ रिस के हैं, कुछ अनुरोध मान-मोचन का परता आग्वो मे सकेत, वोल अरी मेरी चेतनते । तू किसकी, ये किसके हैं ?" "प्रजा तुम्हारी, तुम्हे प्रजापति सबका ही गुनती हूँ मैं, यह सन्देह भरा फिर कैसा नया प्रश्न सुनती हूँ में," "प्रजा नहीं, तुम मेरी रानी मुझे न अब भ्रम मे डालो, मधुर भराली। क्हो 'प्रणय के मोती अव चुनती हूँ मैं।' मेरा भाग्य गगा धुंधला सा, प्राची पट सी तुम उसमे, खुल कर स्वय अचानक स्तिनी प्रभापूण हो छवि यश मे । मै अतृप्त आलोर भिखारी ओ प्रकाश-बालिके । बता, वव डूबेगी प्जास हमारी इन मधु अधरो के रस मे? ये सुख-साधन और पहली रातो की शीतल छाया, स्वर सचरित दिशाएं, मन है उन्मद और शिथिल काया तब तुम प्रजा वना मत रानी।" नर पशु कर हुँवार उठा, उधर फैलती मंदिर घटा सो अधार की घन माया । माद वाहमय ॥५९४॥
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६१९
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