पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६२४

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श्रद्धा का था स्वप्न किन्तु वह सत्य वा था, इडा सकुचित उधर प्रजा मे क्षोभ घना था। भौतिक विप्लव देख विकल वे थे घबराये, राज शरण म त्राण प्राप्त करने को आये। किन्तु मिला अपमान और व्यवहार दुरा था, मनस्ताप से सब के भीतर रोप भरा था। क्षुब्ध निरखते बदन इडा वा पीला पीला, उधर प्रकृति को रुकी नही थी ताडव लोला। प्रागण मे थी भीड बढ रही सब जुड आये, प्रहरी गण कर द्वार बद थे ध्यान लगाये। रात्रि धनी कालिमा पटी मे दवी लुकी सी, रह रह होती प्रगट मेघ की ज्योति झुकी सो। मनु चिन्तित से पड़े शयन पर सोच रहे थे, ब्रोध और शका के श्वापद नोच रहे थे "मैं यह प्रजा बना कर कितना तुष्ट हुआ था, किंतु कौन कह सकता इन पर रुष्ट हुआ था। क्तिने जव से भर पर इनका चक्र चलाया, अलग अलग ये एक हुई पर इनकी छाया। मे नियमन के लिए बुद्धि वल से प्रयत्न कर, इन पर एकत्र, चलाता नियम बना कर। मधप