पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६२५

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किन्तु स्वय भी क्या वह सब कुछ माना चले मै, तनिक न मै स्वच्छद, स्वण सा मदा गलू मै । जो मेरी है सृष्टि उसी से भीत रहूँ मैं, क्या अधिकार नही कि कभी अविनीत रहूँ मै? श्रद्धा का अधिकार समपण दे न सका मै, प्रतिपल बढता हुआ भला कब वहा रुवा मै । इडा नियम-परतत्र चाहती मुझे बनाना, निर्वाधित अधिकार उसी ने एक न माना। विश्व एक बधन विहीन परिवत्तन तो है, इसकी गति में रवि-शशि-तारे ये सब जो ह रूप बदलते रहते वसुधा जलनिधि वनती, उदधि बना मरुभूमि जलधि मे ज्वाला जलती । तरल अग्नि को दौड लगी है सब के भीत्तर, गल कर बहते हिम-नग सरिता लोला रच कर । यह स्फुलिंग का नृत्य एक पल आया बीता । टिकने को कब मिला किसी को यहा सुभीता? कोटि कोटि नक्षत्र शून्य के महा विवर म, लास रास कर रहे लटकते हुए अधर म। उठती है पवनो के स्तर मे लहरें क्तिनी, यह असख्य चीत्वार और परवशता इतनी प्रसाद वाङ्गमय ।। ६००॥