पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६२६

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यह नत्तन उन्मुक्त विश्व का स्पदन द्रुततर गतिमय होता चला जा रहा अपने लय पर। कभी कभी हम वही देखते पुनगवत्तन, उसे मानते नियम चल रहा जिमसे जीवन । रुदन हास वन किंतु पलक मे छलक रहे हैं, शत शत प्राण विमुक्ति खोजते ललक रहे हैं। जीवन मे अभिशाप शाप मे ताप भरा है, इम विनाश मे सृष्टि कुज हो रहा हरा है। 'विश्व बंधा है एक नियम से' यह पुकार मी, फैल गयी है इनके मन मे दृढ प्रचार सी। नियम इन्होने परखा फिर सुख साधन जाना, वशी नियामक रहे, न ऐसा मैने माना। मैं चिर वधन हीन मृत्यु सीमा उल्लघन- करता सतत चलूँगा यह मेरा है दृढ प्रण । महानाश की सृष्टि वीच जो क्षण हो अपना, चेतनता की तुष्टि वही है फिर सव सपना।" प्रगतिशील मन का एक क्षण करवट लकर, देखा अविचल इडा खडी फिर मब कुछ देर। सघर्ष ॥६०१॥