पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६३०

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प्रकृति सग सघप सिखाया तुमको ने, तुमको केन्द्र बनाकर अनहित किया न मैंने । मैंने इस बिम्वरी विभूति पर तुमको स्वामी, सहज बनाया, तुम अब जिसके अतर्यामी । किंतु आज अपराध हमारा अलग खडा है, हा म हा न मिलाऊँ तो अपराव बडा है। मनु । देखो यह भ्रात निशा अब बीत रही है, प्राची मे नव उपा तमस को जीत रही है। अभी समय है मुझ पर कुछ विश्वास करो तो, बनती है सब बात तनिक तुम धेय्य घरो तो।" और एक क्षण वह प्रमाद का फिर से आया, इधर इडा ने द्वार ओर निज पैर बढाया। किंतु रोक ली गयो भुजाओ से मनु की वह, निस्सहाय हा दीन दृष्टि देखती रही वह । "यह सारस्वत देश तुम्हारा तुम हो रानी । मुझको अपना अस्त्र बना करती मनमानी । सघप ॥६०७॥