पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यह छल चलने मे अव पगु हुआ सा समझो, मुझको भी अब मुक्त जाल से अपने समझो। शासन की यह प्रगति सहज ही अभी स्केगी, क्यो कि दासता मुझसे अब तो हो न सकेगी। मै शासक, मै चिर स्वतत्र, तुम पर भी मेरा- हो अधिकार असीम, सफल हो जीवन मेरा। } छिन्न भिन्न अन्यथा हुई जाती है पल मे, सकल व्यवस्था अभी जाय डूबती अतल म । देख रहा हूँ वसुधा का अति भय से कपन, और सुन रहा हूँ नभ का यह निमम ऋदन । किंतु आज तुम बदी हो मेरी बाहो मे, मेरी छाती मे," फिर सब डूबा आहो म । सिंह द्वार अरराया जनता भीतर आयी, "मेरी रानी" उसन जो चीत्कार मचायी। अपनी दुबलता म मनु तर हाफ रहे थे, स्सलन विपित पद वे अब भी काप रहे थे सजग हुए मनु वज्र खचित ले राज दड तब, और पुवारा "तो सुन लो जो कहता हूँ अव- - प्रसाद वाहमय ॥६०८॥