पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६३३

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"तो फिर मै हूँ आज अकेला जीवन रण में, प्रकृति और उसके पुतलो के दल भीषण में। आज साहसिक का पौरुप निज तन पर लेसें, राजदड को वन वना सा सचमुच देखें।" यो कह मनु ने अपना भीषण अस्त्र सम्हाला, देव 'आग' ने उगली त्यो ही अपनी ज्वाला। छूट चले नाराच धनुष से तीक्ष्ण नुकीले, टूट रहे नभ धूमकेतु अति नीले पीले। अघड था बढ रहा, प्रजा दल सा झुंझलाता, रण वर्षा में शस्त्रा सा बिजली चमकाता। किंतु क्रूर मनु वारण करते उन बाणो को। बढे कुचलते हुए सड्ग से जन प्राणा को। ताडव में थी तीव्र प्रगति, परमाणु विकल थे, नियति विकषण मयी, नास से सब व्याकुल थे। मनु फिर रहे अलात चक्र से उस घन तम मे, वह रक्तिम उन्माद नाचता कर निमम में। उठा तुमुल रण नाद, भयानक हुई अवस्था । बढा विपक्ष समूह मौन पददलित व्यवस्था । आहत पीछे हटे, स्तम्भ से टिक कर मनु ने, श्वास लिया, टकार क्यिा दुलक्ष्यो धनु ने । प्रसाद वाङ्गमय ॥ ६१०॥