पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६५२

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हाथ पकड ले चल साता हूँ हा कि यही अवलम्ब मिले, वह तू कौन । परे हट, श्रद्धे । आ कि हृदय का कुसुम खिले।" श्रद्धा नीरव सिर सहलाती आखो मे विश्वास भरे माना रहती 'तुम मेरे हो अब क्यो कोई वृथा डरे?" जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से लगे बहुत धोरे कहने, "ले चल इस छाया के बाहर मुझको दे न यहा रहने । मुक्त नील नभ के नीचे या कही गुहा मे रह लेंगे अरे झेलता ही आया हूँ जो आवेगा सह लेंगे।" निवेद ॥६२९॥