पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सजावन रस से बन घुल, उधर प्रभात हुआ प्राची म मनु के मुद्रित नयन पुले। श्रद्धा का अवलम्ब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे, मनु उठ बैठे गद्गद होकर बोले कुछ अनुराग भरे। "श्रद्धा | तू आ गयो भला तो पर क्या मैं था यही पड़ा। वही भवन, वे स्तम्भ, वेदिका बिखरी चारा ओर घृणा । आँख बद कर लिया क्षोभ से "दूर दूर ले चल मुझको, इस भयावने अधकार मे खोदूं कही न फिर तुझको । प्रसाद वाङ्गमय ।। ६२८॥ --