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उपा अरुण प्याला भर लाती सुरभित छाया के नीचे, मेरा यौवन पोता सुख से अलसाई आँखें मीचे। ले मकरन्द नया चू पडती शरद प्रात को शेफाली, निखराती सुस हो, सध्या की सुन्दर अलके धुंधराली। सहसा अधकार की आंधी उठी क्षितिज से वेग भरी, हलचल से विक्षुब्ध विश्व, थो उद्वेलित मानस लहरी। व्यथित हृदय उस नीले नभ मे छायापथ सा खुला तभी अपनी मगलमयी मधुर स्मिति कर दी तुमने देवि । जभी । निर्वेद ॥६३१॥