पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६५५

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ग्ली, दिव्य तुम्हारी अमर अमिट छवि लगी मेलने रंग नवल हेम ऐसा सी मेर हृदय शिवप पर सिंची भली। प्रतिमा, अरुणाचल मन मदिर यी वह मुग्ध माधरी नव लगी सिमाने स्नेह-मयो मी सुन्दरता यी मृदु महिमा । उस दिन तो हम जान सके थे सुदर विसको हैं कहते ! तब पहचान सके, क्सिके हित प्राणी यह दुख सुख सहते । जीवन कहता यौवन से कुछ देखा तू ने मतवाले' यौवन कहता 'सांस लिये चल कुछ अपना सम्बल पाले!' प्रसाद वाङ्गमय ॥६३२॥