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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६६४

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वह चन्द्रहीन थी एक रात, जिसमे सोया था स्वच्छ प्रात, उजले उजले तारक झलमल, प्रतिबिम्बित सरिता वक्षस्थल, धारा बह जाती बिम्ब अटल, खुलता था धीरे पवन पटल, चुपचाप खडी थी वृक्ष पात, सुनती जैसे कुछ निजी बात । धूमिल छायाएं रही घूम लहरी पैरो को रही चूम, "मां | तू चर आयी दूर इधर, सध्या कब की चल गयी उधर, इस निजन मे अब क्या सुन्दर- तू देख रही, हा बस चल घर उसमे से उठता गघ धूम" श्रद्धा ने वह मुख लिया चूम । दशन ॥ ६४३॥