पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

"माँ ! ययो तू है इतनी उदास, वया में हूँ तेरे नही पास, तू पई दिनो से यो चुप रह, क्या सोच रही है ? कुछ तो वह, यह पैसा तेरा दुख दुसह, जो बाहर भीतर दता दहा लेतो ढोली मी भरी सास, जैसे होती जाती हतारा। वह बोलो "नोल गगन अपार जिसमे अवनत धन सजल भार, आते जाते, सुख, दुख, दिशि, पल, शिशु सा माता कर खेल अनिल, फिर झलमल सुन्दर तारक दल, नभ रजनी पे जुगनू अविरल, यह विश्व अरे क्तिना उदार, मेरा गृह रे उन्मुत्त द्वार । प्रसाद वाङ्गमय ।। ६४४।।