पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६७४

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वे तीनो ही क्षण एक मौन, विस्मृत से थे, हम कहाँ, कौन । विच्छेद बाह्य, था आलिंगन- वह हृदयो का, अति मधुर मिलन, मिलते आहत होकर जलकन, लहरो का यह परिणत जीवन, दो लौट चले पुर ओर मौन, जब दूर हुए तव रहे दो न, निस्तब्ध गगन था दिशा शान्त । वह था असीम का चिन कान्त । कुछ शून्य विन्दु उर के ऊपर, व्यथिता रजनी के श्रम सीकर, झलके कब से पर पडे न झर, गभीर मलिन छाया भू पर, सरिता तट तर का क्षितिज प्रान्त, केवल विखेरता दोन ध्वान्त दशन ॥ ६५५॥