पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६७६

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तव सरस्वती सा फेंक सांस, श्रद्धा ने देखा आस पास, थे चमक रहे दो खुले नयन ज्यो शिलालग्न अनगढे रतन यह क्या तम मे करता सनसन ? धारा का ही क्या यह निस्वन । ना, गुहा लतावृत एवं पास, कोई जीवित ले रहा सास । वह निजन तट था एक चित्र, कितना सुन्दर, कितना पवित्र ? कुछ उन्नत थे वे शैल शिखर, फिर ऊँचा श्रद्धा वह लोक अग्नि मे तप गल कर थी ढली स्वण प्रतिमा बन कर का सिर, मनु ने देखा क्तिना विचित्र । वह मातृमूर्ति थी विश्वमित्र । दर्शन १६५७॥