पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बोले "रमणी तुम नही आह । जिसके मन मे हो भरी चाह, तुमने अपना सब कुछ खोकर, वचिते । जिसे पाया रोकर मै भगा प्राण जिनसे लेकर, उसको भी, उन सब को देवर, 1 निदय मन क्या न उठा कराह । अद्भुत है तव मन का प्रवाह । ये श्वापद से हिंसक अधीर कोमल शावक वह वाल वीर सुनता था वह वाणो शीतल, कितना दुलार कितना निमल? कैसा कठोर है तव हत्तल वह इडा कर गयी फिर भी छल ? तुम बनी रही हो अभी धीर छुट गया हाथ से आह तीर, प्रसाद वाङ्गमय ।। ६५८॥