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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६८३

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उस शत्ति शरीरी या प्रकाश, सब शाप पाप का कर विनाश- नतन मनिरत, प्रति गल कर, उस कान्ति सिधु म घुल मिलकर, अपना स्वरूप कमनीय बना था भीषणतर, धरती सुन्दर, हीरक गिरि पर विद्युत विलास, उरलसित महा हिम धवल हास । दखा मनु ने नत्तित नटेश, हत चेत पुकार उठे विशेष, "यह क्या श्रद्धे । बस तू उन चरणो तक, सब पाप पुण्य जिसमे पावन बन जाते हैं मिटते असत्य से ज्ञान लेश समरस अखण्ड आनन्द वेश" प्रसाद वाङ्गमय ।।६६४॥