पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६८२

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लीला का स्पन्दित आल्हाद वह प्रभा पुज चितिमय प्रसाद, आनन्द पूण ताण्डव सुन्दर, झरते थे उज्ज्वल श्रम सीकर, बनते तारा, हिमकर दिनकर, उड रहे धूलि कण से भूधर, महार सृजन से युगल पाद- गतिशील, अनाहत हुआ नाद । विखरे असख्य ब्रह्माण्ड गोल, युग त्याग ग्रहण कर रहे तोल विद्यत कटाक्ष चल गया जिधर, कपित ससृति बन रही उघर, चेतन परमाणु अनन्त विखर, बनते विलीन होते क्षण भर, यह विश्व झूलता महा दोल, परिवतन का पट रहा खोल । दशन ॥ ६६३ ॥