पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६८६

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कन्व देश उस नील तमस मे स्तब्ध हो रही अचल हिमानी पथ थक कर है लीन चतुर्दिक देख रहा वह गिरि अभिमानी, चढते, दोनो पथिक' चले हैं का से ऊंचे ऊचे चढते श्रद्धा आगे साहस उत्साही से बढते । मनु पीछे थे पवन वेग प्रतिकूल उधर था कहता, "फिर जा अरे बटोही । किधर चला तू मुझे भेद कर? प्राणो के प्रति क्यो निर्मोही छूने को अम्बर मचली सी बढी जा रही सतत उँचाई विक्षत उसके अग, प्रगट थे भीपण खड्ड भयकरी खाँइ । रवि कर हिम खडा पर पड कर हिमकर कितने नये बनाता, द्रुततर चक्कर वाट पवन भी फिर से वही लाट आ जाता। रहस्य ।। ६६७॥