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नाच जलघर दाड रह थ गुन्दर सुर - धनु माला पहने, चुञ्जर - पलभ सदृश इठलाते चमकाते चपला के गहने । प्रवहमान थे निम्न देश में शीतल शत शत निझर ऐसे । महा श्वेत गजराज गण्ड से बिसरी मधु धाराएं जैसे। हरियाली जिनकी उभरी, वे समतल चित्रपटी से लगते, प्रतिवृतिया में वाह्य रेस से स्थिर, नद जा प्रति पल थे भगते । लघुतम वे सर जो वसुधा पर ऊपर महाशय का घेरा ऊँचे चढने पी रजनी का यहां हुआ जा रहा सपेरा। प्रमाद गङ्गमय ।। ६६८॥