स्वाध्याय वस्तुत श्रेयगर्भित, प्रेयसमवित और युग के लिये योगवाही एव प्रयाजनीय रहेगा। इस अनुवेध म मान काव्य या रसास्वाद और केवल उसका दशन निन्ता अगी न हो अग ही रहगे फिर, प्रसाद वाङ्गमय की उपलब्धि का वृहत्तर और यथाथ आयाम विज्ञात न होगा। इस शती के आरभ से मानव समाज के उद्बोधन मे हुए वैश्व सकल्प और आयास के समस्वर भारतीय जीवनदृष्टि और समाज के जागरण भैरव मे वाङ्गमयी विपची कैसे सवादी स्वर दे रही है यह जिज्ञास्य केवल काव्यास्वाद और दशन चिन्तन द्वारा ही उपचीण न हो सकेगा वैसी जिज्ञासा समाज की उन सभी अयान्य प्रवृत्तियो का स्पश किये है जिनके समवेत प्रभाव मे युग आख्यात रहता है। और प्रस्तुत सन्दर्भ मे, वह समवेत प्रभाव एक 'घनीभूत पीडा' बन कर प्रसाद भारती के मस्तक म छा जाती है और, विश्वयुद्ध (प्रथम), बलशोई क्रान्ति एव सर्वापरि भारत के अपने घोरतम अवसाद के दुदिन मे आसू बन कर बरसती है इतिहास और साहित्य के क्षणो का यह कोई आकस्मिक सयोग नही और फिर, विरह मिलन के तत्त्व न तो एकदेशीय होते हैं न एककालिक न एक सस्थानीय हो । कवि- चेतना साधारणीकरण की दशा और अनुभूति की प्रवणता मे किन आयामो से क्या ग्रहण कर उन्हे कैसे रूपक रूप दे सकती है यह उस प्रसिद्ध वारमीकीय श्लाक से अनुमित हो सकता है जिसम एक क्रौच के वध-प्रसग में स्फुरित करणा वाल्मीकि को वाल्मीकित्व दे जाती है । इस 'धनीभूत पीडा' की बदली किसी क्षितिज-विशेष से नही उठ रही है इसीलिये तो सबका निचोड ले कर आँसू के 'विश्व सदन' म बरसने की की प्रामगिक्ता है। निश्चय ही एक व्यापक परिप्रेक्ष्य मे आसू 'मानव-समाज' के कल्याणा नुष्ठान का सक्ल्प-वाचन है जिसे कामायनी के अन्तिम छद मे सिद्धि मिलती है इस सन्दभ मे अधुनापि उपलब्ध पदाथ और भाव-सामग्री का समुचित उपयोग नहीं हो पाया जिससे वायवीय अनुमानो का निरास हो सो यहा प्रसग प्रस्तार से बचने और मूल विषय से ही प्रसक्त रहने से उनकी चर्चा मम्भव नही । सवका निचोड ले कर तुम सुख से सूखे जीवन म । वरसो प्रभात हिमवन सा आसू इस विश्व सदन म ।। सामा यत विश्व-समाज और विशेपत विकासोन्मुख देश एव भारतीय समाज जिस सक्रान्ति का आज भोग कर रहे हैं, प्राय दो शती पुरानी है उसका कोई व्यवस्थित निष्क्रमण निष्कप अभी नही निकल प्रसाद वाङ्गमय ॥६॥
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