पाया यद्यपि दृष्टि मे आ चुका है। किसी देश-समाज के अथ शतिया महत्त्व नही रखती और विश्व-समाज की दृष्टि से तो सहस्त्रादिव्या भी नगण्य है। उन्मेप या क्रान्ति, आतिवाहिक निभृत और निचले स्तरा से सदैव प्रवर्तित रहती हैं जिनका अथ होता है विगताथ-व्यवस्था का विक्षेप और अनुकूल मगल की प्रतिष्ठा । वैषम्य की भूमिका पर, सृष्टि के विकास मे क्रान्ति का तत्त्व एकमेव साधनभूत होता है जो अभ्युदय मे आस्था रखता है मानवसमाज की अगति मे नही अपितु प्रगति में वह उद्युक्त होता है । प्रसाद-वाङ्गमय मे ऐमा ही है। वहा देव सस्कारो के प्रति अतिशय विरोध है और उस से उन्नत और परिपूण एक मानव- समाज की प्रस्तावना उस वाङ्गमय की अपनी विशेषता है और वे सस्कार किंवा परिवेश चाहे अशात्मकत्वेन ही क्यो न हो अभी क्या विद्यमान नहीं हैं ? प्रसाद भारती का इसमे कथमपि विश्वास नहीं कि मानव-समाज का उद्धार, उसका दिव्य रूपान्तर कोई देवदूत या देवचेतना ऊपर से आकर + रेगी अपितु, वह मानवी-पुरुपाथ के सुसमन्वित- मन्तुलित नियोजन, प्राणी मात्र के प्रति प्रेम और करुणा मौहाद और सर्वोपरि सवविध 'सबकी समरसता' को छाया म एक सहज मानवी- महासहति मे आस्था रखती है । जिम भूमि पर प्रसाद-वाङ्गमय उभर कर सम्मुख आया उसे देखने से उमकी आधारशिला कारण-मत्ता = प्रेरणा के उसके मूल उपादान और काय विवत्त दोना ही स्पष्ट होगे और, निहित वस्तु-तत्त्व की प्रासगिकता को परखने मे भी सुविधा रहेगी। भूमि कहने से मेग तात्पय, उस सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिवेश से है जिसके अन्त-स्पन्द की छाप मानव चिन्तन के विकास मे अनुस्यूत रहती है और जो इतिहास की पृष्ठभूमि को बनाती हैं अर्थान्तरेण विदित वत्तमान जिसका परिणाम होता है । उस भूमि की आपुजित वेदना ने वैसे कवि कण्ठ की मुखरता के कारण जुटाये और उपादान इकट्ठे किये जिसमे भाव प्रतिवेदन की समथता निसगत विद्यमान रही किन्तु, अवघाय होगा कि वेदना स्वयमेव शून्य की एक क्रिया होती है जो अनुकूलता और प्रतिकूलता के अभिमानी सुख और दुख के उपजीव्य ले भावाकार गढती है परन्तु आकलित दुगोपजीवी भावाकृतियो के ही अनुभव निवेदन म आज इस शब्द का प्रयोग रूढ हो गया है वस्तुत , वेदना एक क्रिया है जिसमे सुग्व और दुख की सज्ञायें प्रतिफलित होती हैं । यह बात अन्य है कि क्रिया मे भी सज्ञा प्रावस्थन ॥७॥
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