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महा ज्योति रेग्वा सी बनकर श्रद्धा को स्मिति दौडी उनमे, वे सम्बद्ध हुए फिर सहसा जाग उठी थी ज्वाला जिनमे । नीचे ऊपर लचकोली वह विषय वायु मे वधक रही सी महाशून्य मे ज्वाल सुनहली, सन को कहती 'नही नहीं' सो। शक्ति तरग प्रलय पावक का उस निकोण मे निखर उठा सा, शृङ्ग और डमर निनाद बस सकल विश्व म बिवर ठठा सा। चितिमय चिता धधकती अविरल महाकाल का विपम नृत्य था, विश्व रध्र ज्वाला से भर कर करता अपना विषम कृत्य था । स्वप्न, स्वाप जागरण भस्म हो इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे, दिव्य अनाहत पर निनाद श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे । रहस्य ॥ ६८३॥