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सामजस्य चले करने ये किन्तु विषमता फैलाते है, मूल स्वत्व कुछ और बताते इच्छामा को झुठलाते है। स्वय व्यस्त पर गात बने से शस्त्र शास्त्र रक्षा मे पलते, ये विज्ञान भरे अनुशासन क्षण क्षण परिवत्तन मे ढलते । वही त्रिपुर है देखा तुमने तीन विन्दु ज्योतिमय इतने अपने केन्द्र बने दुख सुख मे भिन्न हुए हैं ये सब कितने । ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है इच्छा क्यो पूरी हो मन की एक दूसरे से न मिल सके यह विडम्बना है जीवन की।" प्रसाद वाङ्गमय ।। ६८२५