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चलता था धीरे धीरे वह एक यात्रियो का दल, सरिता के रम्य पुलिन मे गिरि पथ से, ले निज सरल । - था सोम उत्ता से आवृत वृष धवल धम का प्रतिनिधि, घटा बजता तालो म उसकी थी मथर गति विधि । वृप रज्जु वाम कर मे था दक्षिण त्रिशूल से शोभित, था साथ उसी के मुख पर था तेज अपरिमित । मानव केहरि किशोर से अभिनव अवयव प्रस्तुटित हुए थे, यौवा गम्भोर हुआ था जिसम कुछ भाव नये थे। चल रही ,इडा भी वृप के दूसरे पाश्व मे नीरस, गरिक वगना सध्या सी जिसके चुप थे सब पररख । यानद ॥६८७