पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/७७

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करि-करि मृदु केली वृक्ष की डालियो से सुनि रहस क्था के गुज को आलिया से । लहि मुदित मरन्दै मन्द ही मन्द डोले यह विहरण प्रेमी पौन कीन्हे कलोल ।। विशद भवन माही रत्न दीपाकुराली निज मधुर प्रकाश चन्द्रमा में मिलाली । विधुकर-धवलामा मन्दिरो की अनोखी सरवर महं छाया फैलि छाई सुचोखी । विविध चित्र बहु भाति के लगे मणि जडाव चहुँ ओर जो जगे । महल माहि बिखरावती विभा मधुर गन्धमय दीप की शिखा ॥ कुशराज-कुमार नीद मे सुख सोये शुचि सेज पै तहा । विखरे चहुँ ओर पुष्प के सुखमा सौरभ पूर है जहा ।। मुखचन्द अमन्द सोहई अति गम्भीर सुभाव पूर है । अधरानहि-वीच खेलई मृदु हासी सुखमा सुमूर है ॥ तह निद्रित नैन राजही नव लीला मय शोल ओज हैं । मनु इन्दुहि मध्य साजही युग सकोचित-से सरोज है। तह चारु ललाट सिन्धु मे नहि चिन्ता लहरी पिराजही। अति मन्दहि मन्द कान म मनुवीणा ध्वनिसो सुवाजही ॥ बढि पञ्चम राग म जवे सुविपच्ची ध्वनि कान मे पड़ी। जगि के तहं एक भामिनी अघ मदे दृग ते लख्यो खडी। प्रसाद वागमय ॥१०॥