"जेहि वश-चरित्र को लिसे कवि वात्मीकि अजौ सुख्यात है। तुमही । निज तात सामुहे शुचि गायो वह क्यो भुलात है। "जेहि राम राज्य को सदा रहिहे या जग माहिं नाम है। तेहि के तुमहुँ सपूत हो चित चेतो बिगरयो न काम है। "तुम छाइ रहे कुशवती अरु सोये रघुवश की ध्वजा । उठि जागहु सुप्रभात है जेहि जागे सुख सोवती प्रजा ॥" नीरव नील निशीथिनी नोखी नारि निहारि। विपति विदारी वीरवर, वोले वचन विचारि ॥ "देवि ! नाम निज धाम, काम कौन ? मोते कहौ । अरु तुम येहि आराम- माहि आगमन किमि कियो? "तुम रूप निधान कामिनी यह जैसी विमला सुयामिनी । रघुवशहि जानिहो सही परनारी पर दीठ दें नहीं । "तुम क्यो बनी अति दीन? क्यो मुख लखात मलीन ? निज दुख मोहिं वताउ कछु करहुँ तासु उपाउ ॥ "जव ला करवाल धारिहैं रघुवशी दृढ चित्त मान के। कुटिला भृकुटि न देखिहें सुरभि, ब्राह्मण औ तियान के । प्रसाद वाङ्गमय ॥१२॥
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