पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/८०

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शोचहु न चित्त महँ शक नाही मोचहु विपाद निज हीय चाहि । ईश्वर महाय लहि है सहाय मेटहुँ तुम्हार दुख, करि उपाय ॥" सुनि अति सुख मानी सुन्दरी मजु वानी गदगद सु गिराते यो कह्यो दीन-वानी । "तुम सुमति सुधारी ईश पीरा निवारी अब सुनहु बिचारी है, क्था जो हमारी ।। "सुख-समद्धि सर भाति सो मुदा रहत पूर नर नारि ये मुदा अवध-राज नगरी सुमोहती लखत जाहि अलकाहु मोहती ॥ "इक्ष्वाकु आदिक की विमल- कीरति दिगन्त प्रकासित्ता। सो भई नगरी माग कुल- आधीन और विलामिता ॥ नहि सक्यौ सहि जव दुख तव आई अही ले के पता । सो मोहिं जानहु हे नरेन्द्र । अवध नगर की देवता ॥ "जहँ लग्यो पिपुल मतग- तुग मदा झरै मदनीर को। तहँ निमि लसे बहु वक्त व्यथ शृगालिनी के भीर को ॥ जहें हयन हेपा विक्ट- ध्यति, शत्रु-हृदय कैंपावती । तह गिद्धनी-गन है सुछन्द विहारि पे सुख पावती ॥ जह परत कोवित पलित- वोमन्नाद अतिहि सुहावने । सो सुनि सक्त नहिका , कारन ये कुचोल भयावने ॥ चित्रापार ॥१३॥