पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जहँ कामिनी कल किंकिनी घुनि सुनत श्रुति सुख पावही । तहं विकट झिल्लीरव सुनत सुक्हत नही क्छु आवही ॥ "कुमुद" नाम इक नाग वश है समुझि ताहि यह बोर अश है। विगत राम जनहीन दीन है निज अधीन करि ताहि लीन है ॥ उजरी नगरी तक तहा मणि-माणिक्य अनेक है परे । तेहि वो अधिकार में किये सुख भोगै मव भाति सो भरे । रघु, दिलीप, अज आदि नृप, दशरथ राम उदार। पारयो जाको सदय ह. तासु उद्धार । निज पूवज-गन की विमल- वचि जाय। कुमुद्वती सम सुन्दरी, औरह लाभ वरवीर "डरहु न नेहु चित्त में धरे रहो धीर, कारिह उवारी अवध को।" भोर होत ही राजसभा मे बैठे रघुकुल-राई। प्रजा, अमात्य आदि सही ने दियो अनेक बधाई॥ श्रोत्रिय गनहि बुलाइ, सकर- राज दान मजि, पयानो कीरति हू लवाय।। सुनि, बोले प्रमाद वामय ॥१४॥ A