पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/८४

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"बहु लतिका नरु वीरुध, जे मम बाल सनेही । तिनको सिञ्चन करहु, अहै तुव कारज एही ॥ यह अशोक को पादप जामे किसलय कोमल ! औरहु परम रसाल लखहु करना कदम्ब भल ।।" "अहै माधवी लता मृदुल-कलिका-नव धारति । 'शकुन्तला' के विरह-अश्रु की बूंद पसारति ।। तिज मनाल सी वाहनि सो भरि गागरि आनी। जाको साझ-मवेरे सीचति दै-दे पानी।" "ये सब सोचन हेतु अहिं बातें तुम करती। कुसुम चूनिवो और यहै, क्यो वरमत अरती ॥" शकुन्तला को नाम सुने दूजी यो बोली- श्यो हत नाहन दवी आग यो कहि पुनि खोली ।। पाइ राज-सुख सखियन को निज हाय । विसारी। बहुत दिवस वीते, निज-खबर न दोन्ही प्यारी ॥ अहो गौतमी हू कछु कहत न रजधानी की। मम वनवासिनि सम्वी जु शकुन्तला रानी की॥" "नगर नागरी महरानिन के सैन अनोखे । वह सूची बन-बाला पिय को वैसे तोरो॥ जाने दे, पिन काज कहा बैठी बतरावत । पाइ पिया कोपम मयिहि विन पूछन आवत । अहिं गुपहिं आहार देयो हैं हम वारी । बहुत भोर भई सु कुटीरहिं चलिये प्यारी ।।" तर काश्यप को शिष्य तहा गालव चलि आयो । "कण्व कहा है " पूछ्यो तिनसो अति हरपायो ।। "अग्निहोत्र-शारा मे"-वहि दोनो वन वाला। बुसुम-पान लीन्हो उठाइ मारुति की माला ।। लजत मराली गमन लगे, ये दोनो आली। यलर-वरान ममेटि चली ले कुसुल उतालो ।। पोक्लि सो निज स्वर मिलाइ यह बोलत बोली। निज पाश्रम पै पहुँची वै गर करत ठिठोली ॥ तुमुम-पान धरि गुग्न्समीप निज सिरहि झुगाई। वन्दन पर बैठी वे, मनकी माहिं दुराई। चियापार ॥ १९॥