पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/८५

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वोल्यो गालव करि प्रणाम भपिवर को कर सो- "ले सँदेस हम आये हैं अपने गुरवर सो॥ महाराज दुप्यन्त सहित निजसुत प्रियवर के। शकुन्तला-संग मिले, शाप छूट्यो मुनिवर के ॥ "बहु प्रत धारि अनेक कष्ट सहि पुनि सुख पायो । सुखद पुन मुस चद्र देखि अति हिय हरपायो । दलित कुसुम अपमानित-हिय, वाला बेचारी। शकुन्तला निज पति-सुख पायो पुनि सुकुमारी ।। गद्गद कण्ठ, सिथिल-वानी अति ही सुखसानी । बोले कण्व-महर्षि पम, अविरल ज्ञानी ।। "सवही दिन नहिं रहत दुख ससार मंझारी। क्हु दिन की है जोति कहूँ है चन्द्र उजारी॥" प्रियम्बदा अनुसूया हूँ अति ही हिय हरपा । थान्दित ह सुखद अथु निज आखिन बरपी । पायो जब सवाद मोहर निज अभिलाषित । भयो प्रफुल्लित तहिं वहै, तप-वन चिर-तापित ॥ "हेमक्ट ते उतरि मरीची के थाश्रम सो। आवत है दुपयन्त-सहित निज श्री अनुपम सो॥" मातलि आय क्ह्यो ज्या ही, सब ही हिय हुलसे । तह अनन्दमय ध्वनी उठी तबही ऋषिकुल से॥ शकुन्तला दुष्यन्त, बीच म भरत सुहावत । धम, शाति, आनद, मनहुँ साहिं चलि आवत ॥ देसत हो अबुलाय उठी, तुरतहि वन वाला। प्रियम्बदा, अनुसूया, विकसी ज्या मदु माला ।। भाट सखी गन सो, तबही वह रोवन लागी। हप विपाद असीम, अनन्दित है पुनि पागी॥ शकुन्तला निज बाल-सखी गल सो कहुँ लागे । बढ्यो अधिक आवेग माहि, नहिं गल भुज त्यागे।। करण, प्रेम प्रवाह, वढ्यो, वा शुद्ध तपोवन । बरसन लग्यो मनोहर मजुल मुंद आनंद-धन ॥ श्रद्धा, भक्ति, सरलता, सव ही जुरी एक छन । चिन-लिखे-से चुप कें देखत खडे एक मन ।। प्रसाद वागमय ॥२०॥ -