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कान्ह वुलावे री । -यमुना गड गई, मगल ने क्या समझा होगा? वह घण्टी का घसीटती हुई बाहर निकल आई। यमुना हांफ रही थी। पसीने-पसीने हो गई थी। अभी वे दोनो मडक पर पहुँची भी न थी वि दूर से किसी ने पुकारायमुना। यमुना मन म सकल्प-विकल्प कर रही थी कि मगल पवित्रता और आलोक से घिरा हुआ पाप है कि दुर्बलताआ म लिपटा हुआ एक दृढ सत्य ? उसने समझा कि मगल पुकार रहा है, वह और लम्बे डग वढाने लगी। सहसा घण्टी ने कहाअरी यमुना । वह तो विजय वायू हैं, पीछे-हो-पोछे आ रहे हैं । यमुना एक वार कांप उठी-न जान क्या, पर खड़ी हो गई । विजय घूमकर लोटा आ रहा था। पास आ जान पर विजय न एक बार यमुना का नीच से ऊपर तक देखा। कोई कुछ बोला नहीं, तीना घर लौट आये । बसत की सघ्या सान की धूल उडा रही थी। वृक्षा के अन्तराल से आती हुई सूयप्रभा उडती हुई गर्द को भो रंग देती थी। एक अवसाद विजय के चारा ओर फैल रहा था, वह निर्विकार दृष्टि से बहुत-सी बाते सोचत हुए भी किसी पर मन स्थिर नही कर सकता। घण्टी और मगल क परद मे यमुना अधिक स्पष्ट हा उठी थी। उसका आकर्पण अजगर की सांस के समान उसे खीच रहा था। विजय का हृदय प्रतिहिंसा और कुतूहल से भर गया था । उसन खिडकी से झाँककर देखा, घण्टी आ रहा है । वह घर से बाहर हो उमसे जा मिला । कहाँ विजय बाबू ? -घण्टी ने पूछा । मगलदेव के आश्रम तक, चलोगी? चलिए। दोना उसी पथ पर बढे । अंधेरा हा चला था । मगल अपन आश्रम मे बैठा हुआ सध्योपासन कर रहा था। पीपल क वृक्ष के नीचे शिला पर पद्मासन लगाये वह बोधिसत्त्व को प्रतिमूर्ति-सा दीखता था। विजय क्षण-भर तक दखता रहा, फिर मन-ही-मन कह उठा-पाखण्ड ? --आख खालत हुए सहसा आचमन लेकर मगल ने धुंधले प्रकाश में दखा-विजय और दूर कौन है, एक स्त्री? यमुना तो नहीं है। वह पलभर के लिए अस्त-व्यस्त हा उठा । उसन पुकारा-- विजय बाबू । विजय न कहादुर से धूमकर ना रहा हूँ, फिर आऊंगा। विजय और घण्टी वही से लौट पड, परन्तु उस दिन मगल के पुरुपसूक्त का ७८ प्रसाद वाडमय