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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१०९

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पाठ न हो सका । दीपक जल जाने पर जब वह पाठशाला में बैठा, तब प्राकृतप्रकाश के सूत्र उसे बीहड़ लगे। व्याख्या अस्पष्ट हो गई। ब्रह्मचारियो ने देखा —गुरुजी को आज क्या हो गया है । विजय घर लौट आया । यमुना रसोई बनाकर बैठी थी। हंसती हुई घण्टी को भी उसने साथ ही आते देखा । वह डरी ! और न जाने क्यो उसने पूछा-~विजय बाबू विदेश में एक विधवा तरुणी को लिये इस तरह धूमना क्या ठीक है? यह वात आज क्यो पूछती हो यमुना ? घण्टी । इसम तुम्हारी क्या सम्मति है ? --~-शान्त भाव से विजय ने कहा। इसका विचार तो यमुना को स्वय करना चाहिए। मैं तो ब्रजवासिनी हूं हृदम की वसी को सुनने से कभी रोका नही जा सकता। यमुना व्यग से मर्माहत होकर बाली-अच्छा भोजन कर लीजिए। विजय भोजन करने बैठा पर अरुचि थी। शीघ्र उठ गया। वह लम्प के सामने जा बैठा । सामने ही दरी के काने पर बैठी यमुना पान लगाने लगी। पान विजय के सामने रखकर चली गई किन्तु विजय ने उसे छुआ भी नहीं, यह यमुना ने लोट आने पर देखा । उसन दृढ स्वर में पूछा -विजय वाबू, पान क्या नही खाया आपने? अब पान न खाऊँगा आज से छोड़ दिया । पान छोडन में क्या सुविधा है ? मैं बहुत जल्द ईसाई होने वाला हूँ, उस समाज में इसका व्यवहार नहीं । मुझे यह दम्भपूर्ण धर्म बोझ के समान दबाय है, अपनी आत्मा क विरुद्ध रहने के । लिए मैं वाध्य किया जा रहा हूँ। आपक लिए तो कोई रोक टोक नही फिर भी यह मैं जानता हूँ कि कोई राक टाक नही, पर मै यह भी अनुभव करता हूँ कि मैं कुछ विरुद्ध आचरण कर रहा है। इस विरुद्धता का खटका लगा रहता है । मन उत्साहपूर्ण होकर कर्तव्य नहीं करता । यह सब मेरे हिन्दू रहने के कारण है । स्वतन्त्रता और हिन्दू धर्म-दोनो विरुद्धवाची शब्द है । पर ऐसा वात तो अय धर्मानुयायी मनुष्या के जीवन म भी आ सकती है। सब का काम सब मनुष्य नही कर सकते । ता भा बहुत सी वात ऐसी हैं जो हिन्दू धम में रहकर नहीं की जा सकती, किन्तु मर लिए नितान्त आवश्यक हैं। जैस? तुमस ब्याह कर लेना। ककाल ७६