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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/११०

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यमुना ने ठोकर लगने की दशा मे पडकर पूछा-क्यो विजय बाबू ! क्या दासी होकर रहना किसी भी भद्र महिला के लिए अपमान का पर्याप्त कारण हो जाता है ? यमुना | तुम दासी हो? कोई मेरा हृदय खोलकर पूछ देखे, तुम मेरी आराध्य देवी हो-सर्वस्व हो । -विजय उत्तेजित था। मै आराध्य देवता बना चुकी हूं-मै पतित हो चुकी हूँ, मुझे .. यह मैंने अनुमान कर लिया था, परन्तु इन अपवित्रताओ में भी मै तुम्हे पवित्र, उज्वल और ऊर्जस्वित पाता हूँ-जैसे मलिन वसन म हृदयहारी सौंदर्य । किसी के हृदय की शीतलता और किसी के यौवन की उष्णता-~~-मै सब झेल चुकी हूँ | उसमे सफल नहीं हुई, उसकी साध भी नही रही । विजय बाबू । मैं दया की पात्री एक बहन होना चाहती हूँ-हे किसी के पास इतनी नि स्वार्थ स्नेह-सम्मत्ति जा मुझे दे सके ? –कहते-कहते यमुना को आँखो से आँसू टपक पडे । _ विजय थप्पड खाय हुए लडके के समान घूम पडा---मै अभी आता हूँ-- कहता हुआ वह घर के बाहर निकल गया। ८०: प्रसाद वाट मय