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यह मान भी लूं कि विधवा से ब्याह करके तुम एक धर्म सम्पादित करते हो, तव भी घटी जैसी लडकी से तुमको जीवन भर के लिए परिणय-सूत्र म बांधने के लिए मै एक मित्र के नाते प्रस्तुत नही। __अच्छा मगल । तुम मेरे शुभचिन्तक हो, यदि मै यमुना से ब्याह करूं ? वह तो... तुम पिशाच हा । —कहते हुए मगल उठकर चला गया । विजय न क्रूर हंसी-हंसकर अपने-आप कहा--पकडे गये। ठिकाने पर । वह भीतर चला गया। दिन बीत रहे थे । होली पास आती जाती थी । विजय का यौवन उच्छृङ्खल भाव से बह रहा था। उस ब्रज को रहस्यमयी भूमि का वातावरण और भी जटिल बना रहा था। यमुना उससे डरने लगी। वह कभी-कभी मदिरा पीकर एक बार ही चुप हो जाता । गम्भीर होकर दिन-का-दिन बिता दिया करता। घटी आकर उसमे सजीवता ले आने का प्रयत्न करती परन्तु वैस ही, जैसे एवं खंडहर की किसो भग्न प्राचीर पर बैठा हुआ पपीहा कभी वोल दे । _____ फाल्गुन के शुक्लपक्ष की एकादशी थी। घर के पासवाले कदम्ब के नीचे विजय बैठा था। चांदनी खिल रही थी। हारमोनियम वातल और ग्लास पास ही थे । विजय कभी-कभी एक-दो घूट पी लेता और कभी हारमोनियम में एक तान निकाल लता। बहुत विलम्ब हा गया था। खिडकी म स यमुना चुपचाप यह दृश्य देख रही थी। उसे अपने हरद्वार के दिन स्मरण हा आये । निरभ्र गगन म चलती हुई चाँदनी--गगा के वक्ष पर लोटती हुई चांदनी-कानन की हरियाली म हरी-भरी चाँदनी ! और भरण हो रही यो मगल के प्रणय की पीयूप-वर्पिणी चन्द्रिका । एक एसी ही चादनी रात थी। जगन से उस छोटी काठरी मे धवल मधुर जालोव फैल रहा था। तारा नैटी थी उसकी लटे तक्यि पर बिखर गई थी, मगल उस कुन्तल स्तव को मुट्ठी म लेकर सूंघ रहा था। तृप्ति थी किन्तु उस नृप्ति को स्थिर रखने के लिए लालच का जन्त न या। चादनी खिसकती जाती थी। चन्द्रमा उस शीतल आलिंगन को देखकर लज्जित होकर भाग रहा या । मकरन्द म लदा हुआ मारुन द्रिका-चूर्ण क माथ मौरभ-राशि बिखेर दता या । यमुना पागल हो उठी। उमन दखा-मामने विजय बैठा हुआ अभी पी रहा है । रात पहर-भर जा चुकी है। वृन्दावन म दूर से फगुहारा की डफ की गम्भीर ध्वनि और उन्मत्त कण्ठ स रसीन फागा की तुमुल ताने उस चांदनी म, उस पवन म मिनी थी। एक स्त्री आई, करीन को झाडियो स निकलकर विजय ककाल ८३