पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१२

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दृष्टि से रामचन्द्र शुक्ल को निबन्ध शैली का आभ्यंतरी कृत रूप है। पद्धति मूलक विश्लेषण को दृष्टि से इसे 'दाहरण और निष्कर्ष' कहा जा सकता 'पत्थर की पुकार' में 'अतीत' और 'करुणा' को साहित्य का चित्ताकर्षक तत्त्व माना गया है । यह दो तत्व प्रसाद के साहित्य मे अंत तक बने रहे हैं। उपन्यासो मे जप भी अवसर मिला है उन्होंने धार्मिक शवता और सामाजिक अपगता को ऐतिहासिकता से जोड़कर सांस्कृतिक प्रगतिशीलता का एक नया अर्थ भी देने का प्रयास किया है। वर्तमान जिस रूप में भयावह और निन्दनीय है उसके कारण और विकल्प की चेतना प्रसाद के उपन्यासो के कात का आयाम फैला देनी है । प्रसाद जो कुछ जैसा है उसके साथ-साय कैसा होना चाहिए की दृष्टि भी रखते हैं और यह दृष्टि व्यापक परिवर्तन की मांग से जुड़ती है परन्तु प्रेमचद को भांति वे 'वर्तमान' को ही प्रमुख नही मानते बल्कि भविष्य को भी ध्यान में रखते हैं, जो उनके 'अतीत और करुणा' के सिदात से मेल खाता है। यह आश्चर्य है कि अजय और मुक्तिबोध दोनों ही करुणा को सुजनात्मक शक्ति मानते हैं और दोनो मे ऐतिहासिक चेतना भावात्मक और अभावात्मक रूपो मे मौजूद है। मेरा तात्पर्य उस दिशा की ओर सकेत करना है जिसकी ओर प्रसाद सकेत करते हैं। प्रगतिशील विश्व' को स्वीकार करते हुए भी प्रसाद 'छलांग' के सिद्धांत मे विश्वास नहीं करते हैं । उनके अनुसार "जब हम समझ लेते हैं कि कला को प्रगतिशील बनाए रखने के लिए हमको वर्तमान सभ्यता का जो सर्वोतम हैअनुसरण करना चाहिए तो हमारा दृष्टिकोण भ्रमपूर्ण हो जाता है; अतीत और वर्तमान को देखकर भविष्य का निर्माण होता है, इसलिए हमको साहित्य मे एकागी लक्ष्म नही रखना चाहिए" (काव्य कता तथा अन्य निबध, पृ० ११२) यह दृष्टिकोण प्रसाद के उपन्यासो मे पहले से है । उपन्यासों की संरचना में जयशकर प्रसाद इसका इस्तेमाल नहीं करते हैं बल्कि उपन्यास उनको विश्व दृष्टि-आर्य दृष्टि-के परिणाम ही होते हैं, जिसमे 'इतिहास' के रूप मे अतीत हमारे जातीय स्मृति का न केवल अग बनकर आता है बल्कि संकल्पात्मक अनुअनुभूति या 'वेदना' के प्रत्यय मे हो वह निहित है । क्योकि प्रसाद जी युंग की भांति 'सामूहिक अचेतन' को स्वीकार करते हैं जो एक प्रकार से उनके विश्वारमा के सिद्धान्तों का प्रतिरूप ही है । परतु यह ऐतिहासिकता कथा के रूप में लगभग 'पद्मावत' की भांति जुड़ती है और वेदना को व्यापक और गम्भीर दोनो बना देती है। काल मे प्रसाद 'पद्मावत' को मानव जीवन की समस्याओ के सात्वनापरक हल का आधार मानते हैं । वेदना को विवृत्ति का-स्वप्न और १६:प्रसाद वाङमय