पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१३

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आकाक्षा का, आदर्श और यथार्थ को जो द्विभाजिकता पद्मावत मे है वही प्रसाद के उपन्यासा मे है। प्रसाद जी यह मानते हैं कि "यथार्थवाद क्षुद्रो का हो नहीं अपितु महानों का भी है । वस्तुत यथार्थवाद का मूल भाव है वेदना। जब सामूहिक चेतना छिन्न-भिन्न होकर पीडित होने लगती है, तब वेदना की विवृत्ति आवश्यक हो जाती है। कुछ लोग कहते हैं- साहित्यकार को आदर्शवादी होना ही चाहिए और सिद्धान्त से हो आदर्शवादी धार्मिक प्रवचन कर्ता बन जाता है । वह समाज को कैसा होना चाहिए, यही आदेश करता है । और यथार्थवादो सिद्धात से ही इतिहासकार से अधिक कुछ नही ठहरता, क्योकि यथार्थवाद इतिहास की सम्पत्ति है । वह चित्रित करता है कि समाज कैसा है या था, किन्तु साहित्यकार न तो इतिहास क्र्ता है और न धर्मशास्त्र प्रणेता। इन दोनो के कर्तव्य स्वतत्र हैं। साहित्य इन दोनो को कमी पूरा करने का काम करता है । साहित्य समय की वास्तविक स्थिति क्या है, इसका दिखाते हुए भी उसम आदर्शवाद का सामजस्य स्थिर करता है। दुख दग्ध जगत और आनन्द पूर्ण स्वर्ग का एकीकरण साहित्य है । इसीलिए असत्य अघटित घटना पर कल्पना की वाणी महत्त्वपूर्ण स्थान देती है, जो निजी सौन्दर्य के कारण सत्य पद पर प्रतिष्ठित होती है । उसमे विश्व मगल की भावना आत-प्रोत रहती है।' (काव्यकला तथा अन्य निबंध, पृ० १२४) काल, तितली और इरावती मे दुख दग्ध' जगत और आनन्दपूर्ण स्वर्ग' के इसी एकीकरण का प्रयास है। और इसोलिए कई कमियो के बावजूद क काल कथा साहित्य की परिधि पर होता हुआ भो केन्द्र को प्रभावित करने वाला सबसे प्रमुख उपन्यास है । किशोरी, तारा, घटी, लतिका, सरला, रामो, गाला, विजय आदि की 'दुख दग्ध दुनिया का, कृष्णशरण की दुनिया-आनन्दपूर्ण स्वर्ग-से एकीकरण, काल की वस्तु है। ये दोनो दुनियाएं ककाल में मिलते मिलते रह जाती हैं। देव निरजन, तारा यानी यमुना और विजय का ककाल 'पद्मावत की धूल की तरह हकीकत को अधिक गहरा और विषाद पूर्ण बना देता है । विजय देवनारायण साहो ने पद्मावत म जायसी की जिस विषाद दृष्टि का उल्लेख किया है वही अतत 'ककाल' मे भी उत्पन्न होती है और 'ककाल' की 'गाला' या 'तितली' की तितली की कथा उस करुणा को अधिक गहराती ही है । 'ककाल' मे विजय का ककाल एक प्रश्न चिह्न है। विजय को उपन्यास म देवता, विद्रोही और मगलदेव द्वारा अत मे सही भी कहा गया है और वही सत्य एक प्रकार से सामूहिक सत्य के प्रतीक के रूप मे अनदेखा और अनपहचाना मर जाता है । शवनम की कथा मे प्रसाद जी द्वारा पद्मावत का वह दोहा यदि प्राक्कथन : १७