पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१२७

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आज्ञा से तुम्हारी ठोकर खाता हूँ । क्या मुझे और कही भीख नही मिलती नही यही मेरा प्रायश्चित्त है । माता अव क्षमा की भीख दो । देखती नही हो नियति ने इस अन्ध को तुम्हारे पास तक पहुँचा दिया । क्या वही तुमको-ऑखोवाली को-तुम्हारे पुत्र तक न पहुचा देगा? विजय विस्मय से दख रहा था कि अधे की फूटी आँखा स ऑसू बह रहे है। उसने कहा-भाई मुझे अपनी राम-कहानी तो सुनाआ। घण्टी भा वही आ गई थी। अव अन्धा मावधान हाकर बैठ गया। उसन कहना आरम्भ क्यिा हमारा घराना एक प्रतिष्ठित धमगुरुआ का था । बीसो गाव के लोग हमारे चेले थे । हमार पूर्वजा की तपस्या और त्याग मे यह मयादा मुझे उत्तराधिकार म मिली या । यशानुक्रम स हम लाग मन्त्रोपदष्टा हाते आय थ । हमारे शिष्य सम्प्रदाय म यह विश्वास था कि मासारिक आपदाए निवारण करने की हम लागो म बहुत बडी रहस्यपूण शक्ति ह । रही होगी मरे पूर्वजा म परन्तु मैं उन सब गुणो से रहित या। मैं पल्ले सिरे का धूर्त या । मुझको मात्रा पर उतना विश्वास न था जितना अपन चुटकुला पर । मे चालाकी से भूत उतार देता राग अच्छे कर दता वध्या को सन्तान देता ग्रहो की आकाश गति में परिवर्तन कर दता व्यवसाय म नक्ष्मी की वर्षा कर देता। चाह सफरता दो एक को ही मिलती रही हो परन्तु धार म कमी न थी। मै कैस क्या-क्या करता उन सब घृणित बाता को न कहकर वेवन सरला के पुत्र की वात मुनाता हूँ। पाली गाव म मेग एक शिष्य था । उमने एक महीन की एक लड़की और अपनी युवती विधवा छोडकर अकाल म ही स्वग यात्रा का। वह विधवा धनी थी । उसको पुत्र की बडी लानसा थी परन्तु पति थे नही पुनर्विवाह असम्भव था। उसके मन में किसी तरह यह बात वैठ गई कि वावाजी यदि चाहगे तो यही पुत्री पत्र पन जायगी। अपन इस प्रस्ताव का लेकर बड प्रलोभन के साथ वह मरे पास आई। मने लेखा मुयोग है। उसस कहा---तुम पिसी स कहना मत एक महीने बाट गगासागर मकर सक्रान्ति क योग म यह किया जा सकता है । वही पर गगा-समुद्र हो जाती है फिर लडकी म लडका क्यो नही होगा । उसके मन में यह बात बैठ गई । हम लोग ठीक समय पर गगासागर पहुँचे । मैंने अपना लक्ष्य ढूढना आरम्भ किया। उमे मन ही मन ठीक भी कर लिया। उस विधवा स लडकी कर मै मिद्धि के लिए एकान्त म गया-~-वन म किनारे पर म पहुँच गया। पुलिस उधर लोगा को जाने नही देती । उसकी आखो से बचकर म जगल की हरियाली म चला गया। थाडी देर म दौडता हुआ मले की आर ककाल ६७