पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१२६

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आज तिन दिना पर विजय मरना या वाटरी म बेटा है । घण्टी तिरा व माय बात करने र निरा चली गई धा। विजय का मरना न आल पाकर रहा--पेटा । तुम्हाग भी मा हागी उसको तुम एपबागी भुनार इम छाबडी को लिए "धर उधर मारे मार क्या फिर रह हो? आह वह frतनो दुनी होगी। विजय गिर नीचा पिये नुए रहा मरना फिर वहन गो-विजय । वलजा रान नगा है हृदय पचाटने उगता है पांच छटपटाकर उस दखन के लिए पाहर निस्तन लगती हैं उरण्ठा साम वनार दौडन रगती है । पुत्र का स्नेह पडा पागन नह है विजय । स्त्रियाँ हो म्नह की विचारक हैं । पति के प्रेम और पुत्र के स्नत म क्या अन्तर है यह उनको ही विदित है। जहा तुम निष्ठुर सडक क्या जानोगे । नोट जाआ मेरे बच्चे । अपना मां की भूनी गोद म लौट जाआ । -मरना रा गम्भार मुय किसी व्यावल नाराक्षा में दम ममय विकृत हो रग विजय को आश्चर्य हुआ। उमन कहा--क्या जाप र भी कोई पुत्र था। था विजय बहुत मुन्दर था । परमात्मा 7 वरदान व ममान गीतन शान्ति पूण था । हृदय की आकाक्षा के मदृश गम । माय पयन ये ममान कोमल मुखद म्पश । वह मरी निधि मेरा मर्वस्व था । था नही भ रहती हूँ कि है, कही है । वह अमर है वह मुदर है वही मरा मय है। आह विजय | पचीस वरम हा गये-उसे देगे हुए पचीस परम 1 – युग मे कुछ ऊपर | पर मैं उसे दखकर मगी। --कहते-कहत मरता को आँखो म जाँसू गिरन वग । इतने म एक अधा नाठी टेकन हुए मरला के द्वार पर आया । उस देखते ही मरला गरज उठी---आ गया । विजय यही है उसे ले भागन वाना | पूछो इमा मे पूछो। उस अधे न लकडी रखकर अपना मस्तर पृथ्वी पर टेक दिया फिर सिर ऊँचाकर बोला-माता । भीख दा । तुम स भीख लेकर जा मै पट भरता हूँ वही ता मरा प्रायश्चित्त है। मैं अपने कर्म का पन मोगने के लिए भगवान् की ६६ प्रसाद वाड मय