पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१३८

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मगल, इस प्रवचन म अपनी अनुभूति मुनाऊँगा, घबरानो मत । तुम्हारी सब शकाओ का उत्तर मिलेगा। मगलदव ने सन्तोप स सिर झुका दिया। वह लौटकर अपने ब्रह्मचारिया क पास चला आया। आश्रम म दा दिना स कृष्ण-कथा हो रही थी। गोस्वामीजी बाल-चरित्र कहकर उसका उपसहार करते हुए बोले धर्म और राजनीति स पीडित यादव-जनता का उद्धार करके भी श्रीकृष्ण न दखा कि यादवा का ब्रज म शान्ति न मिलेगी। प्राचीनतत्र के पक्षपाती नृशस राजन्य-वर्ग मन्वन्तर को मानन क लिए प्रस्तुत न थ । हा, वह मनन की विचार-धारा सामूहिक परिवर्तन करन वाली थी। क्रमागत रूढियों और अधिकार उसक सामन काप रह थे । इन्द्र-पूजा बन्द हुई, वर्म का अपमान । राजा कम मारा गया, राजनीतिक उलटफेर । । व्रज पर प्रलय के बादल उमडे । भूख भेडिया क समान, प्राचीनता के समथक, यादवो पर टूट पड़े । बार-बार शत्रुओ को पराजित करक भी श्रीकृष्ण न निश्चय किया कि ब्रज का छोड दना चाहिए । व यदुकुल को लेकर नवीन उपनिवश का खोज म पश्चिम की ओर चल पडे । गापाल न ब्रज छोड दिया । यही ब्रज है । अत्याचारिया की नृशसता स यदुकुल क अभिजात-वर्ग न ब्रज का मुना कर दिया। पिछल दिनो म, ब्रज म बसी हुई पशुपालन करन वाली गोपियाँ-जिनके साथ गोपाल खले थे, जिनके मुख को मुख और दुख का दुख समझा, जिनक साथ जिये, बड हुए, जिनके पशुआ क साथ वे कडो धूप म घनी अमराइयो म, करील के कुजो म विश्राम करते थेवे गोपिया, वे भोली-भाली सरल हृदय अकपट स्नहवाली गोपियाँ, रक्त-मास के हृदयवाली गोपियों-जिनक हृदय म दया थी, माया-ममता थी, आशा थी, विश्वास था, प्रेम का आदान-प्रदान था, -इसी यमुना के कछारो म वृक्षो के नीचे, वसन्त की चाँदनी म, जेठ की धूप म छाह लेती हुई, गोरस बेचकर लौटती हुई, गोपाल को कहानियाँ कहती । निर्वासित गापाल की सहानुभूति से, उस क्रीडा क स्मरण स, उन प्रकाशपूर्ण आखा की ज्याति स, गापियो की स्मृति इन्द्रधनुप-सी रंग जाती । वे कहानिया प्रेम से अतिरजित थी, स्नह स परिप्लुत थी, जादर स आई थी, सबको मिलाकर उनम एक आत्मीयता थी-हृदय की वेदना थी, ऑखा का आमू था | उन्ही को सुनकर, इस छोडे हुए ब्रज म उसी दुख १०६ प्रसाद वाङ्मय